साक्षीभाव और सोहम्
- Vinai Srivastava
- Mar 26, 2022
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आज मै प्रात: काल ध्यान करने बैठने ही वाला था कि मेरे अन्दर से जैसे कोई बाहर निकल कर खड़ा हो गया लगा पूछने ,’’ आख़िर तू है कौन?’’ मैंने कहा,’’ क्या वही घिसा पिटा सवाल वर्षों से ज्ञानी ,विज्ञानी,अज्ञानी,आध्यात्मिक,नास्तिक, आस्तिक, धार्मिक, अधार्मिक, देशी,विदेशी सभी पूछते आए है?’’
वह बोला,’’ उन सबको छोड़। तू बता।’’
मैंने थोड़ी बुद्धि लगाई बोला,’’देख! मेरा ज़्यादा सर न खा। मेरा नाम विनय है। मै यह शरीर हूँ और वह मन भी जिससे बाहर निकल कर मुझसे सवाल कर बवाल कर रहा है। ‘’ वह चुप न रहा। बोला,’’ कौन विनय? वह तो उस शरीर का नाम है जो दुनियावालों ने तेरे पैदा होने पर रखा था। फिर तेरे उस शरीर के मन पर परत जमाई समाज ,देश ,दुनिया ,धर्म ,अधर्म , ज्ञान, विज्ञान,अच्छे,बुरे ने और आज भी तेरे मन पर पल प्रतिपल कुछ न कुछ परत चढ़ती जा रही है। ‘’
‘’हाँ। तो’’
‘’तू तो वह विनय नही है। देख तेरे शरीर का क्षेत्र मन का क्षेत्र दिन प्रति दिन बदल रहाहै। तू वह विनय तो क़तई नही है।’’
मैंने कहा,’’ क्या मज़ाक़ है। मै वही विनय हूँ। ‘’
उसने चुटकी लेते हुए पूछा,’’ विज्ञान का विद्यार्थी रहा है इतना तो तुझे पता है कि हफ़्ते दस दिन मे शरीर की सारी कोशिकाएँ बदल जाती है। समय के साथ पूरा शरीर न जाने कितनी बार बदल चुका है इन सत्तर बहत्तर सालों मे। यही तेरी उम्र होगी न। और मन वह तो पल पल बदल रहा है। कहाँ है वह विनय जो उस शरीर का, मन का नाम था?’’
मै बुदबुदाया,’’ मै वही हूँ जिसने उस विनय के शरीर व मन को पल पल बदलते देखा है ,अनुभव किया है। ‘’
वह हँसा ,’’ मै वही हूँ। इसके मतलब अन्दर कुछ तो है जो नही बदला समय के साथ ,शाश्वत रहा। तू वही है। न शरीर है ,न मन है ,न विनय है।’’
मुझे छटपटाता छोड़ हँसते हुए मुझमें ही ग़ायब होगया। मै सोचने लगा। यदि संस्कृत मे मै स्वयं से पूछूँ कि मै कौन हूँ। ‘कोहम्’ तो जवाब होगा मै वही हूँ यानि ‘सोहम्’। यह जो ‘वही’ है वह तो जन्म से मृत्यु तक ‘वही’ रहेगा। न बदलने वाला। जो समय के साथ कभी नही बदलता वही तो शाश्वत है दूसरा शब्द न बदलने वाला है ‘शिव’।
यही है वह शिव जो मेरे अन्तर मे है,नही बदला और मेरे पल पल को जानता रहा है,देखता रहा एक साक्षी, एक दृष्टा (seer), की तरह मेरे सारे दु:ख,सुख,मेरी अच्छाई, मेरी बुराई सब जानता है;मेरे शरीर और मेरे मन पर क्या बीत चुकी है अब तक और पल पल क्या बीत रही है सब जानता है ; तभी तो कहता है- मै वही हूँ।
सोहम्
उसे पकड़ूँ कैसे , वह तो मेरे भीतर कहाँ छुपा बैठा है कुछ पता तो है नही। बस एक बात मालूम है कि ‘वह शिव है’ सब देख रहा है ;अनुभव कर रहा है मन के विचारों को। वह भीतर बैठा मुस्करा रहा होगा कि मेरी जो उँगलियाँ लिख रही है वह तो पहले ही जानता है। यह तो पक्का है कि वह कोई स्थूल रूप मे नही है मन का कोई विचार नही है अपितु उन विचारों को भी देख रहा है अनुभव कर रहाहै। बस एक बात समझ मे आती है सा़क्षी भाव मे वह विद्यमान है। मेरे शारीरिक मानसिक संस्थान (system)मे भी है और बाहर भी। system के बाहर से बिना संलग्न हुए एक विशुद्ध साक्षी (witness) के समान लग रहा है। अगर हम स्वयं के विचार , कर्म,भाव को out of box,out of system एक साक्षी, एक दृष्टा की भाँति देखे तो उसके क्षेत्र मे शायद पहुँच सकें।
फिर मैंने एक गहरी श्वास ली। सहसा सारा ध्यान श्वासों पर चला गया। साँस भीतर ली तो बहुत हल्की ‘सो’ की आवाज़ भीतर महसूस हुई। जब श्वास बाहर आई तो बहुत हल्की आवाज़ हुई’हम्’। मै श्वासों पर ध्यान केन्द्रित करने लगा। यह क्या प्रत्येक श्वास प्रश्वास मे ‘सोहम’ का मंत्र बराबर उद्भासित हो रहा है जैसे कोई बराबर कह रहा हो’मै वही हूँ ‘। यदि इस ‘वही’ को ‘शिव’ कहा जाय तो वही ‘सोहम’ मंत्र ‘शिवोहम्’ हो जाता है।यदि यही शिव प्रत्येक नर नारी मे है साक्ष्य शक्ति के रूप मे विद्यमान है; तो उस समग्र साक्ष्य शक्ति के सम्मिलित रूप को ‘परम शिव’ सकतेहैं।यदि इसी को ‘आत्मा’ कहें तो जो प्रत्येक मे साक्ष्य शक्ति के रूप में विद्यमान है तो सभी आत्माओं की समग्र रूप ही ‘परमात्मा’ है।
यह शक्ति काल य समय से अप्रभावित है; अर्थात् आत्मा अजर है , अमर है , सर्वविद्यमान है। यदि यह काल से अप्रभावित है तो काल से परे है महाकाल कह सकते है। शिव महाकाल है। जो समय के साथ न बदले वही तो नित्य है;सत्य है; जो समय के साथ बदल जाय वह तो अनित्य है , असत्य है।
अब मेरा ध्यान अपनी श्वास प्रश्वास पर केन्द्रित हो चला। प्रत्येक श्वास ‘सो’ और प्रत्येक प्रश्वास ‘हम’ के अस्फुट ध्वनि के साथ चल निकली और मै खो गया इन श्वासों और प्रश्वासों मे।कुछ अन्तराल के बाद शरीर की अनुभूति जैसे ख़त्म हो गई। लगा मै स्वयं श्वासों के साथ इस शरीर मे प्रवेश कर रहा हूँ और बाहर आ रहा हूँ। थोड़ा संयत होने पर मन मे प्रश्न उठा ‘यह कैसी अनुभूति थी’। ‘मै’ क्या शरीर के बाहर था। अब यह ‘मै’शरीर के बाहर कैसे? अभी तो मै ‘शिव’रूप मे ,साक्षी रूप में शरीर मे य मन मे कहीं छिपा समझ रहा था। इस गूढ़ गुत्थी को जितना मै समझने की कोशिश कर रहा था उलझती जा रही थी। एक ध्यान आया ‘क्या शिव इस वायु मे भी विद्यमान है जो अपनी उपस्थिति की अनुभूति इस प्रकार करा रहा है?’मैने उस मन टटोला जो मुझे यहाँ तक लेकर आया। मन ने कहा ,’थोड़ा ध्यान से श्वासों को देख। ‘
१)बहुत ध्यान से श्वास प्रश्वास को देखने लगा। श्वास स्वाभाविक रूप से भीतर जाती है और एक बिन्दु पर श्वास की गति शून्य होती है कुछ क्षण रुकती है फिर विपरीत दिशा मे अर्थात् प्रश्वास बन कर गति पकड़ती है।
२)प्रश्वास बन कर एक गति प्राप्त कर पुन: कम होते होते शरीर के बाहर एक बिन्दु पर पुन: शून्य होकर रुकती है। पुन:उसी बिन्दु से श्वास के रूप गति पकड़ कर शरीर मे प्रवेश करती है।
३)यह क्रिया निरंतर अबाध रूप से माँ के गर्भ से निकलने के बाद इस शरीर मे चल रही है।
४)दो ठहराव के बीच की गति ही श्वास है। ५)शरीर के भीतर का ठहराव जिसे अंत: कुम्भक कहते है प्राकृतिक रूप से कम अंतराल का है जबकि शरीर के बाहर के बिन्दु पर प्रश्वास का ठहराव जिसे बाह्य कुम्भक कहते है,प्राकृतिक रूप से ज़्यादा अंतराल का है।
६)यदि इन दोनों कुम्भक का अंतराल एक सीमा से अधिक हो जाय तो व्यक्ति के शरीर की मृत्यु हो जाती है।
७)जब कि स्वेच्छा से अंत: कुम्भक को ज़्यादा देर तक रोका जा सकता है परन्तु बाह्य कुम्भक को तुलनात्मक रूप से उतने ज़्यादा देर नही रोका जासकता है।
शरीर के भीतर एक बिन्दु है जहाँ श्वास की गति शून्य होती है दिशा उलटती है और बाहर भी एक बिन्दु है जहाँ गति शून्य होती है दिशा पलटती है।यदि यह शून्य शिव का परिचायक है तो बाह्य शिव को आन्तरिक शिव से जोड़ती है शिव शक्ति जो हमारे प्राण के रूप से शरीर में शक्ति संचार करती है। मन एक विलक्षण प्रतिध्वनि करके शान्त हुआ। मैंने स्वयं को ध्यान से बाहर अनुभव किया।
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