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परस्पर देवो भव

  • Vinai Srivastava
  • Mar 26, 2022
  • 1 min read

Updated: Apr 10, 2022

बात उन दिनों की है जब मेरी पोस्टिंग दिल्ली मे थी। मेरे एक अत्यंत प्रिय,दिल के क़रीबी मुझे लेकर एक प्रसिद्ध आश्रम मे गए। मुझे वहॉं कीबहुत सी बातें सत्संग, ध्यान, साधना , लोगों का एक दूसरे के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार ,मन को बहुत भाया।सबसे आकर्षक लगा वहाँ का मूलमंत्र जो था-

‘परस्पर देवो भव’

मै सोचने लगा यदि गुरू ने यह मंत्र दिया है तो आख़िर इसका अर्थ क्या है? मेरे मतानुसार जो भी किसी को कुछ भी देता है और बदले मे कुछ भी न पाने की कामना करताहै वही देव य देवता है। यही करुणा( compassion) रूप है। वात्सल्य, ममता ,दया ,दान भी इसी करुणा के ही रूप हैं। इस विचार से माता ,पिता और गुरू इन सब मे देने का ही रूप परिलक्षित है पाने कीभावना के बग़ैर। यह सब देव य देवता है। कहते भी है - मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, गुरू देवो भव इत्यादि। ईश्वर तो सभी को बिना किसी पाने की अभिलाषा के जीवन का एक एक क़तरा सभी प्राणियों को देता है। क्या हम उसके प्रति कृतज्ञ है?

यदि करुणा प्राप्त करने वाला कृतज्ञ(full of gratitude ) हो उठता है, और कुछ न भी दे सके करुणा देने वाले लिए,तो एक दिव्य भाव का जन्म होता है दो परस्पर व्यक्तियों के मध्य, समाज मे सभी मे एक दूसरे के प्रति। वैमनस्यता ,स्वार्थपरता,असंतोष,समाज से तिरोहित हो सकता है यदि हम समाज मे ‘परस्पर देवो भव’ केमूल मन्त्र को इसकी मूल भावना के साथ अपना लें।

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1 Comment


Tej Razdan
Tej Razdan
Apr 13, 2022

enlightening!

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