शिकायत और स्वास्थ्य
- Vinai Srivastava
- Mar 26, 2022
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इस संसार का एक सार तत्व शिकायत भी है। जीवन के विकास के साथ शिकायत का दायरा बढ़ता जाता है। पहले रो रो कर शिकायत होती है फिर जब भाषा बोली सीख जाते है तो बोल कर लिख कर शिकायत करना शुरू होता है। जब जन्म होता है तो नवजात को शिकायत होती है मज़े मे मै पेट मे था मुझे बाहर क्यों निकाला भाषा बोली पता नही तो रो रो कर शिकायत चालू। भूख लगी है बोल सकते नहीं। रोकर शिकायत करेंगे।बड़े हुए तो बड़े की शिकायत छोटे से और छोटे की शिकायत बड़े से। सहपाठी की शिकायत गुरू जी से य फिर गुरूजी की शिकायत आपस मे सहपाठियों से। और बड़े हुए सहकर्मी की शिकायत बॉस से और बॉस की शिकायत सहकर्मियों से। नेता की शिकायत जनता से य जनता की शिकायत नेताओं से। पड़ोसी की पड़ोसी से शिकायत। कुछ न मिला तो मौसम से शिकायत। आज गर्मी बहुत है , आज बारिश बहुत है, आज ठंडक बहुत है। गरज यह कि क्या कोई पल हम बिना शिकायत के गुज़ारते है?
आख़िर हम शिकायत क्यों करते है? कुछ तो खुद की बुनियादी ज़रूरत के न पूरा होने पर शिकायत करते है जो मुख्यत: खुद के शारीरिक य मानसिक ज़रूरत पर निर्भर होती है। जैसे भूख लगी है खाना कहां है, प्यास लगी पानी कहाँ है, जाड़ा लग रहा है गर्म कपड़े कहाँ है, बारिश है छाता कहाँ है , मनोरंजन के साधन कहाँ है इत्यादि।यह शिकायतें स्वाभाविक है जो मूल जीवन स्तर (व्यक्तिगत य सामाजिक रूप )को बढ़ाने का कार्य करते है। स्वयं की स्वंय से शिकायत इस उद्देश्य से कि स्वंय की शारीरिक व मानसिक क्षमताओं को बढ़ाना है , उजागर करना है सर्वथा उचित है यदि उसके लिए दृढ़ संकल्प य कर्म किया जाय।
कुछ शिकायत दूसरो के कर्मों पर आधारित होती है जैसे पड़ोसी१२ बजे रात में उठ कर राग भैरवी उच्च स्वर मे गाना शुरू कर दे। यह हो भी सकता है कि आप शिकायत करे और पड़ोसी गाना बन्द करने के बजाय भोपाली ,य भीमपलासी य ठुमरी पर आ जाय। यहीं से हिंसा की शुरूआत हो सकती है। परन्तु दिक्कत तब होती है जब पड़ोसी रसूख़ वाला य ताक़तवर हो। न शिकायत करते बने और न कुछ कर सकने का रास्ता हो बस सहते जाओ, सहते जाओ। तब मानसिक ग्रन्थि (गाँठ य knot) बनने से आप रोक नहीं सकते। जो कालान्तर में किसी न किसी रोग के रूप में आपके अपने शरीर में प्रकट होगा क्योंकि यह असहजता (अंग्रेज़ी में कहे तो dis-ease ) ही है। ऐसी स्थिति में स्वंय के मन की संभाल (management) की ज़्यादा ज़रूरत होगी।
एक और स्थिति ऐसी भी हो सकती है कि जिससे शिकायत करके समाधान चाहो वह उल्टे शिकायतकर्ता से शिकायत करना चालू कर दे। एक पुरानी फ़िल्म की याद आ गई। फ़िल्म का नाम था ‘धूल का फूल’। उसमें एक गीत था गर्ल फ़्रेंड और ब्वाय फ़्रेंड के बीच-
एक सवाल तुम करो एक सवाल मैं करूँ ,
हर सवाल का जवाब ही सवाल हो।
अगर यह बराबर चालू रहे तो सवाल का बवाल बनते देर नही लगने वाली। यह अगर शिकायत पर शिकायत का क्रम चालू रहे तो क्रोध और घृणा का स्तर विस्फोटक हो जायगा। दोनों को कहीं रूक कर समझौता करना ही होगा परन्तु तब तक न जाने कितनी मानसिक ग्रन्थियाँ बन कर शरीर के अंगों को प्रभावित कर हानि पंहुचा चुकी होंगी। कहीं तो कहना पड़ेगा ही कि-
तुम्हारी भी जय जय, हमारी भी जय जय,
न तुम हारे, न हम हारे।
कुछ शिकायत तो अनावश्यक ही की जाती है जैसे बातों का कोई सार्थक विषय न मिल पाए तो राजनीति में एक पार्टी के ख़िलाफ़ शिकायत य एक जमात य एक ग्रुप के ख़िलाफ़ य फिर मौसम के पीछे पड़ जायेंगे य अ्पने ही घर के य परिवार के य मुहल्ले के व्यक्ति के ख़िलाफ़ शिकायत करना चालू करदेते हैं उससे,जिससे समाधान का दूर दूर तक रिश्ता न हो। कई लोगों की आदत पड़ जाती है। बिना किसी की किसी से शिकायत किए चैन नही पड़ता है। कोई जब भी आपसे कोई भी शिकायत किसी की करे तो ज़रा पूछकर देखिए ,’भइया। शिकायत तो कर रहे हो। क्या इसके निवारण की योजना है तुम्हारे पास? है तो क्रियान्वित करो यदि नहीं तो अपनी य मेरी मानसिक ऊर्जा ह्रास क्यों?
तो ऐसी शिकायत निहायत ही छोड़ देने वाली है क्योंकि इनसे ऋणात्मकता बहुत बढ़ती है जो मन और तन दोनों को हानि पहुँचाने वाले होते है। स्वास्थ्य के लिए मेरे विचार से हानिकारक होंगे।
मैं एक प्रयोग बताता हूँ कभी करके देखिएगा। संकल्प करें कि-
‘ आज मैं किसी की शिकायत किसी से नहीं करूँगा विशेषकर उस विषय पर जिस पर मेरा कुछ भी करने य शिकायत दूर करने का कोई सामर्थ्य नहीं है। यदि मेरा सामर्थ्य है तो उसे शिकायत करने के बजाय खुद शिकायत दूर कर दूँगा य सामर्थ्य भर कुछ भी करने की दिशा मे कार्य करूँगा यदि मेरे बस मे नही है तो शिकायत भूल जाऊँगा ‘
आप पाएँगे कि यह एक बड़ी दुष्कर प्रतिज्ञा य संकल्प है। अगर आप सजग है तो आप स्वंय को अनगिनत बार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ते हुए देखेंगे। अनावश्यक शिकायत करते पाएँगे। परन्तु यदि आप एक दिन भी इसे जागृत अवस्था मे निभा ले गए ईमानदारी से तो आपका आत्मविश्वास तो बढ़ेगा साथ ही मानसिक तनाव दूर होकर मन शान्ति कीओर बढ़ चलेगा। इसका कारण बड़ा स्पष्ट है कि व्यक्ति बाह्य परिवेश य व्यक्तियों और कभी कभी स्वयं के प्रति अन्यान्य शिकायतें ले कर जी रहा है कि उसकी इच्छा के अनुरूप क्यों नहीं हो रहा है। कभी कभी यह भी आता है मै ऐसा क्यों हूँ वैसा क्यों नहीं हूं? वह तो सृष्टिकर्ता की संन्तान है सभी उसकी इच्छानुसार क्यों नही हो रहा है? मानसिक ग्रन्थियाँ गति से बनती जाएँगी और तमाम बीमारियों की पृष्ठ भूमि भी। आपने सुना होगा किभारत के क्रिकेट खेल मे हार जाने पर ह्रदय गति केरुकने से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। कारण उसकी इच्छानुसार परिणाम नही मिला। बहुत बड़ी शिकायत उसने अपने मानसिक धरातल पर डाल दी और उसका प्रभाव उसके ह्रदय अंग पर पड़ा।
अतएव अपनी इच्छा को एक सीमा से आगे बढ़ने न दे। संतोष एक उचित स्तर पर अपने सामर्थ्यानुसार करें। जो कुछ भी आप को उपलब्ध हो ; व्यक्ति य वस्तु य परिवेश, उस पर भगवान के कृतज्ञ हो। करोड़ों वस्तु य व्यक्ति आपको उपलब्ध है। परन्तु यदि आप से कोई लिस्ट बनाने को कहे कि कृपया दस अलग अलग चीज़ों की लिस्ट रोज़ बनाएँ जिसके लिए आप भगवान के कृतज्ञ हैं तो आप मुश्किल मे पड़ जायेंगे। एक पुस्तक मैने पढ़ी शीर्षक थी’Magic ‘. उसमें एक विशेष 28 दिनों की साधना का ज़िक्र है उसमें प्रति दिन सोने से पहले उस दिन की दस अलग अलग घटनाएँ ,य उपलब्धि लिखे जिसके लिए आप भगवान के कृतज्ञ हुए।
दिक्कत यह है कि हम अधिकतर चीज़ों को (taken for granted)अधिकार रूप लेते है। कृतज्ञता (gratitude ) कोसो दूर रहती है। मानसिक तनाव का यह भी एक कारण है। संतोष न स्थापित होने का यह भी एक कारण है। जहाँ कृतज्ञता का अंश मन में बढ़ा मन स्वत: ही धनात्मक विचारों से भरने लगेगा। इच्छाओं पर नियंत्रण शुरू होगा। संतोष मन मे घर करने लगेगा। एक आंतरिक प्रफुल्लता मन मे आएगी जो स्वास्थ्य का कारण होगी।
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