क्या आप राज़ी ख़ुशी हैं ?
- Vinai Srivastava
- Mar 26, 2022
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मुझे याद है कि मेरे बचपन में और युवावस्था तक परिवार में पत्र लिखने का बड़ा महत्त्व था।अब तो लोग एक दूसरे को पत्र लिखने के बजाय, सेल फ़ोन ,एस एम एस, फ़ेसबुक , व्हाट्सएप इत्यादि पर बिना समय गवांए बात कर लेते है फ़ौरन का फ़ौरन। पर उन दिनों पत्र लिखना व पत्रोत्तर की प्रतीक्षा करना एक मनोहारी उत्कंठा हुआ करता थी। पोस्टमैन की प्रत्येक घर से जान पहचान हुआ करती थी। पोस्टमैन से सम्बोधन मे मामा, चाचा, भइया जैसे रिश्ते जोड़ लिए जाते थे। ‘चिट्ठी आई है’- जैसे वाक्य से पूरे घर मे हलचल मच जाया करती था। ‘किसकी चिट्ठी आई है’- सबके चेहरे पर प्रश्न,उत्कंठा, ‘क्या लिखा है सब राज़ी ख़ुशी तो है न’ साफ़ झलकने लगता था। यदि किसी के पिता बाहर नौकरी करते थे और उनका पत्र आता था तो बच्चे ज़िद ठान लेते थे- ‘माँ। पापा ने मेरे लिए क्या लिखा है? वह कब आएँगे? मेरे लिए क्या लाएँगे?’ पूरे घर मे एक ख़ुशी की लहर जैसे गूँज जाया करती थी। बूढ़े माँ बाप दूर किसी शहर मे नौकरी कर रहे बेटे का पत्र पाकर भाव विह्वल, रोमांचित हो जाया करते थे। पत्रों के प्रारंभ मे एक जैसा वाक्य हुआ करता था। -
‘हम लोग राज़ी ख़ुशी हैं। आप राज़ी ख़ुशी रहे यह भगवान से य खुदा से दुआ करते है। ‘
अब तो ‘हाऊ डू यू डू’, ‘हाऊ आर यू’ य सिर्फ़’ हाय’ से काम चल जाता है य यों कहें कि काम ख़त्म हो जाता है लोग अपनी अपनी राह लग जाते है। आज सोचा क्यों न विचार करूँ कि यह वाक्य ‘राज़ी ख़ुशी से हैं’ का कोई गूढ़ अर्थ है क्या? मुझे लगा कि यह तो एक पूरा दर्शन है फिलासफी है। साधारणतया राज़ी का अर्थ है ‘मान जाना’, ‘स्वीकार करना’ य अंग्रेज़ी मे कहें तो ‘to be agreeable ‘। अब प्रश्न है कि किससे ‘Agree ‘ होने की य सामंजस्य बिठाने की बात कही जाती थी जिसमें ख़ुशी भी होती हो। यह एक गहरी बात है। जहाँ राज़ी शब्द सामंजस्य बिठाने से सम्बन्धित है; इसका विलोम शब्द नाराजी़ सामंजस्य न बिठाने, adjust न करने का द्योतक है। ‘नाराज़ी’ क्रोध और दु:ख का मूल है। तो फिर किससे राज़ी होने की बात कही जाती थी।
व्यक्ति मूलत: अपने परिवेश (surroundings) से पल प्रति पल सामंजस्य बिठाता है। उससे राज़ी होने का प्रयत्न करता है। कभी कभी परिवेश को अपने अनुकूल बना लेता है और कभी कभी स्वंय को परिवेश के अनुकूल बना लेता है। जहाँ पहली स्थिति विजयी होने की ख़ुशी प्रदान करती है वही दूसरी स्थिति भी शान्ति य सुकून प्रदान करती है और ख़ुशी का स्त्रोत है। दोनो स्थिति में व्यक्ति राज़ी ख़ुशी से है कहा जा सकता है।
एक दूसरी स्थिति की कल्पना करें जिसमें व्यक्ति ‘ना-राज़ी ‘ है अर्थात् अपने परिवेश के प्रतिकूल है सामंजस्य नहीं बिठा पा रहा है। यह एक संघर्ष की स्थिति है जिसमें कभी क्रोध कभी दु:ख का समावेश है। अतएव नाराजी में सुख कहाँ है? शान्ति कहाँ है? परन्तु यह स्थिति कष्टकारी है; इसमें संघर्ष व कुछ कर गुज़रने का भाव निहित है। संघर्ष के उस पार ख़ुशी है यदि विजयी हुए तो क्योंकि तब ‘राज़ी ख़ुशी ‘ का भाव एक विजयी रूप में प्राप्त होगा। व्यक्ति और व्यक्ति की ख़ुशी के बीच जद्दोजहद , संघर्ष की नदी है जिसे पार करना है। नाराजी (Disagreement/discontentment) किसी भी कर्म की प्रथम प्रेरणा है। जीवन की दिशा,व्यक्ति का व्यक्तित्व ,चरित्र, ज्ञान, विचारधारा का विकास सब नाराजी और फिर राज़ी होजाने की यात्रा पर निर्भर करता है। राज़ी -ख़ुशी का एक सीधा सा आशय है कि व्यक्ति ने अभी संघर्ष समाप्त किया है ख़ुशी का वातावरण है।
यदि हम जीवन की प्रारम्भिक अवस्था पर ध्यान दे तो बच्चा इस संसार में आते ही अपने परिवेश से ‘राज़ी होना’ सीखने लगता है। माँ बाप भी बच्चे के आने से बदले हुए परिवेश मे राज़ी होना सीखने लगते है- कब बच्चे को दूध पिलाना है; कब साफ़ सफ़ाई करना है; कब सुलाना है। उस समय बच्चे के आने पहले कुछ और करते रहे होंगे। अब सामंजस्य बिठाना प्राकृतिक क्रिया होगी। राज़ी होना पड़ेगा। बच्चे की किंचित मुस्कराहट , खिलखिलाती हँसी , तुतलाती ज़बान से कुछ बोलने की ‘खुशी ‘ आगे की स्थिति से ‘राज़ी ‘ होने का खुला आमंत्रण होगा। छोटा बच्चा जो असहाय है, आश्रित है उसे तो परिवेश से सामंजस्य बिठाना ही पड़ता है यदि उसे संसार मे आगे क़दम बढ़ाना है। उसके क्रिया कलापों पर, विचारों पर,स्मृति पटल पर जाने अनजाने सीमारेखाएँ खिंचती चली जाती है , धर्म की, परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति की, परिवार की प्रचलित परिपाटी की। कुछ सीमा रेखाएँ शिक्षण संस्थाओं के परिवेश, गुरू, मित्र , देश व काल की भी उसके मानस पटल पर अंकित हो जाती है जिनसे वह राज़ी होता है। कहने का तात्पर्य यह कि व्यक्ति ज्यों ज्यों परिपक्व होता है उसके बन्धन, सीमा रेखाएँ अनगिनत होते हुए भी एक निश्चित दायरा बनाकर व्यक्ति का चरित्र, विचार, कार्य क्षमता निर्धारित कर देते हैं। व्यक्ति के कार्य समाज मे उसी के अनुरूप होते है। व्यक्ति उसी के अनुसार समाज का उपयोगी य अनुपयोगी अंग बनता है। देशभक्त य देशद्रोही बनता है, धार्मिक य अधर्मी बनता है। चूँकि प्रत्येक के राज़ी होने की क्षमता पृथक पृथक होती है इसलिए एक ही परिवेश मे रहते हुए दोव्यक्ति एक जैसे नही होते है। प्रत्येक व्यक्ति अनोखा है अद्भुत है। एक ही परिवेश मे दो व्यक्ति अलग अलग अपनी प्रतिक्रिया देते है।
अत: आप स्वयं से यह प्रश्न कर सकते है कि ‘क्या मै राज़ी ख़ुशी हूँ?’यदि उत्तर है हाँ तो मस्त रहें। यदि नही तो य तो स्वंय को परिवेश के अनुरूप ढ़ालें य परिवेश को स्वंय के अनुरूप ढ़ालने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो राज़ी ख़ुशी रहे।
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