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क्यों प्रत्येक प्रार्थना में शांति शब्द तीन बार बोला जाता है

  • Writer: vinai srivastava
    vinai srivastava
  • Jun 16, 2023
  • 3 min read

मानव जीवन , अगणित इच्छाओं, आकांक्षाओ, के प्रकट होने पर और उन इच्छाओं, आकांक्षाओ के पूर्ण करने के लिए की गई कल्पनाओं, क्रियाओं का कर्म क्षेत्र है। पूर्ण हुई इच्छाएं जहाँ एक ओर क्षणिक ही सही खुशी का कारण बनती है वहीं दूसरी तरफ आत्मविश्वास, अहंकार और उत्तेजना का कारण भी बनती है। अपूर्ण हुई इच्छाएं, जहाँ एक ओर निराशा, कुंठा, दुख, आत्मविश्वास की कमी का द्योतक बनती है वहीं दूसरी तरफ कल्पनाओं / कर्म क्रियाओं को दूसरी दिशा में मोड़ देने का कारण भी बनती है।

उपरोक्त दोनों दशाओं में मनुष्य का मन शांत न होकर अशांत हो जाता है। मनीषियों ने दोनों दशा में मन को शांत बनाए रखना एक सद्गुण बताया है। एक शांत मन ना ही खुशी में उत्तेजित हो मिथ्या अहंकार का शिकार हो समाज में दूसरों को कमतर समझने की भूल करेगा और ना ही दुख में, निराशा में अपना धैर्य खोएगा। इस मूल मानवीय गुण को हमारे ऋषियों ने पहचाना और प्रत्येक कर्म के आरंभ में और अंत में ओम शांति के मंत्र को उच्चारित करने य प्रार्थना के अंत में ओम शांति, शांति, शांति के मंत्र को उच्चारित करना अभीष्ट बना दिया।

जब भी किसी धर्म विशेष में प्रार्थना की जाती है तो शांति की कामना में अंत में तीन बार ओम शांति, शांति, शांति को बोलना आवश्यक समझा गया। तीनों ताप अर्थात आदि दैहिक, आदि दैविक और आध्यात्मिक को शांत करना प्रत्येक के जीवन का लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए।

थोड़ा और गहराई से विचार करते है। ये आदि दैहिक, आदि दैविक, और आध्यात्मिक ताप आखिर है क्या जिसकी शांति की कामना की जा रही है?

आदि दैहिक में आदि का अर्थ है प्रारंभ और दैहिक का अर्थ है जो देह या शरीर से संबंधित हो। इसका अर्थ है कि देह की तमाम उत्तेजना के फलस्वरूप देह के अंगों में विकार उत्पन्न हो जाते हैं। शरीर किसी न किसी कष्ट या रोग से ग्रसित हो जाता है। आदि दैहिक ताप की शांति का अर्थ है इन कष्टों से मुक्ति हो। शरीर के कष्ट से मन जुड़ा हुआ है अतएव मन की शांति, शारीरिक या दैहिक शांति का मूल स्रोत है। इसका अर्थ है तन व मन में अनावश्यक उत्तेजना या ताप का निवारण हो। इस आंतरिक शांति का तन व मन दोनों मैं होना जरूरी है तभी इस जगत में संपादित कर्म, स्वयं में एवं दूसरों में शांति स्थापना में समर्थ हो सकेगा।

दूसरी अशांति दैविक हो सकती है जिसपर प्राणी का कोई वश नहीं है जैसे बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, अति गर्मी, अति ठंडक, उल्कापात, भूकंप आदि। परंतु यह अशांति परोक्ष रूप मे प्राणी में दैहिक (शारीरिक / मानसिक) कष्ट, अशांति का कारण बन जाती है। अतएव प्राणी में तन और मन की शांति के लिए यह दैविक शांति भी जरूरी हे।

तीसरी अशांति आध्यात्मिक अशांति परोक्ष रूप में मन और तन दोनों को प्रभावित करती है। आध्यात्मिक दो शब्द अधि ओर आत्मिक से मिलकर बना है जो मन व तन के क्षेत्र से परे है। अधि का अर्थ है उच्च ऊपर का या परम ओर आत्मिक अर्थ है आत्मा से संबंधित। इस अशांति का समापन परमात्म शांति में निहित है। इसका क्षेत्र मन व शरीर दोनों से परे की शक्ति पर निहित है। परमात्मा की उस शक्ति की आराधना हेतु इस उद्देश्य को भी परम शांति में निहित कहा गया।

इस कारण हम हर प्रार्थना के उपरान्त तीन बार शान्ति शब्द का उच्चारण कर तीनों तापों की शांति की प्रार्थना करते हैं।

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