आत्मा क्या है ? उस तक पहुँचने का मार्ग क्या है ?
- vinai srivastava
- Dec 29, 2024
- 5 min read
आत्मा क्या है ? उस तक पहुँचने का मार्ग क्या है ?
प्राणी का जीवित शरीर केवल एक स्थूल शरीर नहीं है ।यदि शरीर जीवित है तो शरीर का गतिवान और ऊर्जावान होना जरूरी है। जीवित व्यक्ति के आंतरिक गति(जैसे हृदय की धड़कन,श्वास का चलना आदि ) य बाह्य गति (जैसे हाथ,पैर ,आँखों,की गति,शब्दों का उच्चारण आदि) को अनुभव किया जा सकता है। अनुभव कौन करता है? अनुभव करता है शरीर के साथ संलग्न मन शरीर की इंद्रियों (आँख,नासिका,कान,स्पर्श, जिह्वा) द्वारा। मन तो मस्तिष्क की शक्ति है क्योंकि मस्तिष्क तो एक यंत्र मात्र है । इसे हम चेतन मन (conscious mind) कहते हैं। यदि शरीर से बाह्य गति नहीं अनुभव होती है तो शरीर को अचेतन स्थिति( unconscious state or coma ) मे कहा जाता है। यदि शरीर मे चेतन मन है तो उस शरीर से व्यक्तीकरण जरूरी है ,अर्थात अपने भाव य इच्छा को व्यक्त करना शब्दों द्वारा य संकेतों द्वारा य अन्य किसी माध्यम द्वारा निश्चित है। तभी शरीर और मन को धारण करने वाला मनुष्य ,व्यक्ति कहलाएगा। अतः निश्चित है कि जीवित प्राणी य जीव मे शरीर और चेतन मन य चेतना(consciousness) दोनों का होना आवश्यक है और उसका व्यक्तीकरण भी आवश्यक है। इस विश्व मे शरीर के बिना मन के पृथक आस्तित्व पर भले ही प्रश्न चिन्ह हो। परंतु मन के बिना जीवित शरीर को हम संसार में मरा हुआ य मृत्यु को प्राप्त हुआ मानते हैं। शरीर दिखता है अन्यान्य इंद्रियों द्वारा अनुभव किया जा सकता है। परंतु क्या मन दिखता है ? नहीं ! मन तो नहीं दिखता, न ही इसे छूकर ,महक कर,स्वाद रूप से ,य सुनकर जान सकते हैं।दूसरे शब्दों मे मन आकार रहित, स्वाद रहित, गंधरहित शक्ति है। यही अगम्य मन /न दिखने वाला मन शरीर का नियंत्रण करता है । वैज्ञानिक रूप से सीधे अनुभव जन्य चीज़ को हम द्रव्य (matter) यानि ठोस , द्रव और गैस कहते है और परोक्ष रूप मे अनुभव जन्य को ऊर्जा (energy) य शक्ति कहते हैं। मन एक ऊर्जा य शक्ति का स्वरूप है, जैसे प्रकाश, विद्युत ,चुंबकीय ,गुरुत्वाकर्षण ,नाभकीय ,ऊष्मा आदि आकार रहित,स्वाद रहित,गंधरहित ऊर्जा य शक्ति के रूप हैं। मन प्रत्येक शरीर के साथ अनोखे(unique) रूप मे संलग्न है। इसलिए प्रत्येक प्राणी का तन अनोखा (unique) है। सभी के दो हाथ ,दो पैर, दो आँख, दो कान, दो छेड़ों वाली नासिका इत्यादि हो सकते हैं। परंतु हाथ, पैरों, मुख ,नख, आँख इत्यादि के आकार प्रकार,रंग रूप प्रत्येक मनुष्य का पृथक पृथक ही होगा । प्रत्येक का मन भी पृथक पृथक होगा उसकी इच्छाएं और कार्य शैली अलग अलग होंगी ।
इसी प्रकार मन के भी कुछ सार्वभौमिक गुण है। परंतु सभी प्राणियों मे मन की शक्ति व मन का क्षेत्र अलग अलग होता है।
मन के एक विशद क्षेत्र मे स्मृतियों का भंडारण होता है जिसे हम अर्ध चेतन मन( Sub Conscious Mind) कह सकते हैं। मन की ‘इच्छा’ के अनुरूप जब भी चेतन मन को स्मृतियों की आवश्यकता होती है यही अर्ध चेतन मन उन स्मृतियों को उपलब्ध कराता है। चेतन मन उसी के अनुरूप जगत मे कार्य य कर्म शरीर द्वारा कराता है। यह कार्य य कर्म गति को जगत मे अन्य प्राणियों के चेतन मन द्वारा अनुभव किया जाता है य फिर कर्म गति सिर्फ वैचारिक होने पर अनुभव नहीं भी किया जा सकता है। प्रत्येक स्मृति के साथ जुड़ा होता है मन का अनुभव (experience) और अनुभूति (feelings)।यह अनुभूतियाँ विशेष भाव क्षेत्र(emotion) का निर्माण करती हैं। इन भाव क्षेत्र मे होने वाली अच्छी अनुभूति, अनुभव को दोहराने की ‘इच्छा’ य प्रवृति चेतन मन मे जाग्रत करती है और बुरी अनुभूति य दुख की अनुभूति, अनुभव को आगे से न दोहराने की ‘इच्छा’ य प्रवृति भी मन मे जाग्रत करती है । यहीं से व्यक्ति के चरित्र य व्यक्तित्व य संस्कार का निर्माण होता है। अर्ध चेतन मन, पल पल की इन सारी स्मृतियों को संजो कर रखता है, और उचित भाव क्षेत्र मे मन के आने पर चेतन मन के धरातल पर इन स्मृतियों को ले आता है। चेतन मन एक तार्किक मन भी है जो स्मृतियों को पिछले अनुभवों के आधार पर वर्तमान भाव स्थिति मे मन व शरीर को कर्म की प्रेरणा देता है।
कभी कभी कर्म चेतन मन द्वारा भाव क्षेत्र के बाहर के ‘अज्ञात क्षेत्र’ की प्रेरणा द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं जो शरीर व मन को एक विशेष रूप से प्रभावित करते हैं। मन के इस भाग को हम ‘परा चेतन मन ‘( Para Conscious Mind ) कहते हैं।
उपरोक्त सारी स्थितियाँ ,और स्वरूप जिस परा शक्ति के द्वारा और जिस परा शक्ति के क्षेत्र (जिसमे जगत एक भाग है) मे घटित होती हैं उसे शुद्ध चेतन शक्ति(Pure Consciousness) य आत्मा कहते है। जीव यानि प्राणी के शरीर मे शक्ति का बद्ध स्वरूप जीवात्मा है और जगत के कण कण मे व्याप्त यही आत्मा य निराकार ब्रह्म य परमात्मा का रूप है। यही आत्मा प्रगट रूप मे स्थूल संसार है और अप्रगट रूप से विभिन्न शक्तियाँ हैं जिनमे कुछ को हम अब तक विज्ञान के माध्यम से जानते हैं और बहुत कुछ जानना अभी शेष है। कुछ तो इंद्रियों के अनुभव से भी परे हैं जिनको विज्ञान द्वारा जानना संभव ही नहीं है।
कुछ शक्तियों का अनुभव किया जा सकता है चेतन मन द्वारा। परंतु सभी अनुभवों को शब्दों द्वारा वर्णित करना असंभव है। वैसे इंद्रियों के कुछ अनुभवों को भी शब्दों मे लिखना य बोलना पूर्णरूपेण असंभव है। ठीक वैसे ही - जैसे मीठा क्या है , शहद की मिठास कैसे गन्ने की मिठास से भिन्न है; गुलाब की महक क्या है, गुलाब की महक कैसे चम्पा य चमेली की महक से भिन्न है;- इसे शब्दों में नहीं बताया जा सकता है। हाँ! अनुभव किया जा सकता है शरीर की इंद्रियों द्वारा । सभी की अलग अलग अनुभूति होगी। किसी को शहद की मिठास अच्छी लगेगी ,गुलाब की महक अच्छी लगेगी ;किसी को नहीं। अनुभूति मे अच्छा-बुरा ,ज्यादा अच्छा-ज्यादा बुरा य न अच्छा –न बुरा के अतिरिक्त शब्दों मे कुछ नहीं कहा य लिखा जा सकता है। अतः इस श्रवण य लेखन से आत्मानुभूति असंभव है। इस शक्ति को केवल व्यक्तिगत अनुभव से ही जाना जा सकता है। दूसरे का अनुभव काम न आयेगा। हो सकता है दूसरे का अनुभव कुछ दिशा बता दे। ऋषियों ने मन को ही एक सूत्र माना है जिसके द्वारा उस क्षेत्र के करीब करीब पहुंचा जा सकता है। मन के परे जाने की स्थिति को तुरीय अवस्था (No Mind Zone) कहा है । वह अवस्था भाव शून्य ,शरीर शून्य ,विचार शून्य की अवस्था है अवर्णनीय है। कुछ कुछ झलक कुछ कुछ शक्तियों की इस अनंत दिव्य परमात्म शक्ति य आत्मशक्ति की इस अवस्था मे आने के लिए आध्यात्मिक यात्रा करने मे मिल सकती है जिन्हें ऋषियों ने सिद्धियों का नाम दिया है। ऐसी यात्रा हेतु मन को एक विशेष अवस्था मे लाने की आवश्यकता है। मन शरीर के बिना नहीं है। मन और शरीर को जोड़ने वाली शक्ति है ‘ प्राण ‘ जिसे हम मुख्यतः श्वास के द्वारा ग्रहण करते है और मुख के द्वारा खाद्य पदार्थों से भी ग्रहण करते हैं। अतएव मन को एक विशेष अवस्था मे लाने के लिए श्वास और शरीर द्वारा ग्रहणीय पदार्थों और विचारों को समायोजित करने और संतुलित करने के लिए योग को ही ऋषियों ने अनुकरणीय बताया है। योग ही वह साधन है जो प्राण द्वारा शरीर और मन को जोड़ते हुए मन को आत्म स्वरूप मे ध्यानवस्थिति स्थिति मे पहुंचा सकता है। इसकी अनुभूति तमाम ऋषियों अलग अलग विधियों से की है जैसे पतंजलि ऋषि के अनुभव उनके योग सूत्र के अष्टांग योग मे वर्णित है। जैन के तीर्थंकरों के द्वारा जैन धर्म के विशिष्ट क्रियाओं बताया गया है । बौद्ध धर्म द्वारा साधना की अलग अलग विधाएँ बताई गई है। विपस्सना भी एक इसी प्रकार की विधि है। सूफी संतों द्वारा प्रतिपादित गतिमान ध्यान विधि अलग है। कहीं भक्ति आराधना द्वारा उपरोक्त स्थिति मे पहुँचने की बात कही गई है। अभिनव गुप्त द्वारा वर्णित विज्ञान भैरव तंत्र मे साधना की अन्यान्य विधियाँ बताई गई हैं। श्री मद भगवद गीता मे ब्रहंविद्या द्वारा विस्तारित ज्ञान योग , कर्म योग और भक्ति योग को कैसे जीवन मे उतारें जिससे उपरोक्त विशिष्ट स्थिति मे मन के द्वारा पहुंचा जा सके । गीता सभी के सामंजस्य कि बात कहती है। पहले सम्यक ज्ञान फिर उस पर आधारित कर्म और भक्ति ही आत्म स्वरूप तक पहुँचने कि बात विस्तार से वर्णित है। इस प्रकार गंतव्य स्थिति तो एक है, परंतु उस तक पहुँचने के मार्ग अनेक हैं। अंततोगत्वा जैसे उपरोक्त वर्णित है केवल पठन पाठन से आत्मस्वरूप तक कभी नहीं पहुंचा जा सकता । व्यक्तिगत साधना, दूसरे शब्दों मे स्वयं तपस्या ,ही एक मात्र उपाय है ।
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